धर्मपरिवर्तन कर मुस्लिम व ईसाई बने लोगों को आरक्षण– विश्लेष्ण
हिन्दुओं में जातियों को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है – सामान्य वर्ग
(General), पिछड़ा वर्ग (OBC) व अनुसूचित जाति(SC)/जनजाति वर्ग
(ST)। सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति को आरक्षण आजादी के बाद से ही लागू हो गया, बाद में पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण मिलने लगा। वर्तमान में सामान्य वर्ग को भी 10% आरक्षण EWS के माध्यम से मिल रहा है। सवाल यह है कि क्या हिन्दू धर्म छोड़ मुस्लिम या ईसाई बन चुके लोगों को भी आरक्षण मिलना चाहिए?
भारत में स्वतंत्रता के बाद से ही जातिगत आरक्षण का मुद्दा राजनीति का हिस्सा बन गया और हर सरकार ने वोट बैंक के आधार पर न सिर्फ आरक्षण को अमर कर दिया बल्कि लगातार इसका दायरा बढ़ाते चले गये। शुरुआत में आरक्षण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों को लिए था जिसमें बाद में पिछड़ा वर्ग भी जुड़ गया और वर्तमान में सामान्य वर्ग में EWS के माध्यम से भी आरक्षण मिलने लगा। आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कुल पदों के 50% ही आरक्षण के तहत तय होंगे लेकिन कुछ राज्यों में यह सीमा भी पार हो गयी जैसे राजस्थान में 68% और तमिलनाडू में 87% जिस कारण सुप्रीम कोर्ट में इनके मामले लम्बित हैं। आरक्षण लागु करने को लेकर संविधान सभा में खूब बहस हुई और तब निष्कर्ष निकला कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए यह व्यवस्था रहेगी।
आरक्षण जातियों पर टिका है लेकिन इसमें सिर्फ हिन्दू जातियां ही शामिल हैं। वर्तमान में यह मांग उठाई जा रही है कि मुस्लिम और ईसाईयों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। इसको लेकर बहस का माहौल है और प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के स्वर भी बुलंद हैं। भारत की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी मुस्लिमों व ईसाईयों को आरक्षण देने के विरोध में है जबकि सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस मुस्लिमों व ईसाईयों को आरक्षण देने का समर्थन कर रही है। दोनों के अपने तर्क हैं और दोनों की अपनी दूरदर्शिता लेकिन तथ्यों के आधार पर कहानी कुछ और ही है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि हिन्दू धर्म छोड़ मुस्लिम या ईसाई बन चुके SC/ST जाति के लोगों को आरक्षण मिलना चाहिए या नही, दरअसल संविधान के अनुच्छेद 341(क) के तहत भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह राज्यपालों की सलाह से एक सूचि जारी करें जिसमें शामिल जातियों को लोकसभा, विधानसभा, सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों आदि में आरक्षण प्राप्त होगा। राष्ट्रपति ने इसके तहत प्रथम आदेश 1950 में जारी किया जिसके तहत अछूत समझे जाने वाली हिन्दू समुदाय की जातियों के साथ साथ रामदासी, कबीरपंथी, मजहबी और सिल्क्गार आदि सिख जातियों को भी SC सूचि में शामिल किया गया। राष्ट्रपति के इस आदेश को राज्यों के पुनर्गठन की वजह से 1956 में संशोधित किया गया जिसके तहत हिन्दू व सिख धर्म की कुछ और जातियों को SC सूची में शामिल किया गया। राष्ट्रपति के आदेश को 1990 में दूसरी बार संशोधित किया गया जिसके तहत नवबोद्धों को भी SC सूचि में शामिल किया गया। ऐसा इसलिए जरूरी था क्योकि अनुच्छेद 25 के तहत बोद्ध, सिख और जैन, हिन्दू धर्म का ही भाग हैं।
ईसाई और मुस्लिम संगठन यह मांग उठाते आये हैं कि राष्ट्रपति के 1950,
1956 और
1990 का
आदेश,
संविधान
के
मूल
अधिकारों
में
शामिल
समता
के
अधिकार
(अनुच्छेद
14), जाति-पंथ-रंग-भाषा के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 15) और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25) का उल्लंघन करता है। इसी आधार पर 2004 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी जिसमें राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती दी गयी। इसपर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जस्टिस रंगनाथ मिश्र के अध्यक्षता में एक आयोग बनाया। इस आयोग ने सिफारिश करते हुए राष्ट्रपति के आदेश के उस भाग को निरस्त करने की वकालत की जो कि हिन्दू धर्म छोड़ मुस्लिम व ईसाई बन चुके लोगों को आरक्षण सूचि में शामिल होने से रोकता है। मिश्र आयोग का कहना था कि हिन्दू धर्म छोड़ मुस्लिम व ईसाई बन चुके लोगों को आरक्षण मिलना चाहिए। हालाँकि तब इसका खूब विरोध हुआ जिस कारण कांग्रेस सरकार इससे पीछे हट गयी। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में फिर से इसकी सुनवाई शुरू हुई है और केंद्र की बीजेपी सरकार ने एक आयोग बनाने के आदेश दे दिए हैं जो इस सवाल का उत्तर तलाशेगा कि हिन्दू से मुस्लिम या ईसाई बने लोगों को आरक्षण का लाभ मिले या नही?
मूल अधिकारों का हनन को लेकर आरक्षण की मांग कर रहे मुस्लिम और ईसाई संगठन अपनी दलील पेश कर रहे हैं वहीं भाजपा का तर्क भी कमजोर नही हैं। जब संविधान बन रहा था तब संविधान सभा इस बात पर सहमत थी कि आरक्षण का लाभ सिर्फ हिन्दू जातियों को ही दिया जायेगा। ऐसा मुमकिन ही नही कि तब समता और धार्मिक स्वतंत्रता का विचार न किया गया हो। सन 1950 में जारी राष्ट्रपति का आदेश भी हिन्दू
उपासना
पद्धति
का
पालन
करने
वाली
जातियों
को
आरक्षण
देने
की
बात
करता
है।
बाद
में
सिख
और
बोद्ध
भी
आरक्षण
में
शामिल
हो
गये
लेकिन
सिर्फ
इसी
आधार
पर
कि
सिख
और
बोद्ध
हिन्दू
धर्म
का
ही
भाग
हैं।
यह
तो
भूतकाल
की
बात
रही
लेकिन
वर्तमान
परिस्थियों
में
सवाल
कई
अन्य
भी
हैं।
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आरक्षण के पीछे जिस जातिगत भेदभाव व शोषण की बात कही जाती है वह सिर्फ हिन्दू जातियों के साथ हुआ और इसीलिए उन्हें आरक्षण दिया गया जबकि मुस्लिमों व ईसाईयों में जातिगत भेदभाव नही है। हिन्दू धर्म से मुस्लिम व ईसाई बनने पर भी यही तर्क दिया जाता है कि वो हिन्दू धर्म इसलिए छोड़ रहे हैं क्योकि वहां समानता है और भेदभाव नही हैं। इसलिए धर्म बदलने पर दलित होने पर मिलने वाला आरक्षण भला क्यों दिया जाये?
इसके साथ ही धर्म परिवर्तन भारत में सबसे बड़ी चुनौती है। ईसाई मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन व मुस्लिम संगठनों द्वारा चलाई जा रही धर्म परिवर्तन के मिशन भारतीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। घटती हिन्दू जनसंख्या पर पहले ही जानकार चिंता जता चुके हैं और वर्तमान में आधा दर्जन से अधिक राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। ऐसे में अगर हिन्दू धर्म छोड़ने वालों को भी आरक्षण दिया जाने लगा तो धर्म परिवर्तन में बढ़ोत्तरी होगी।
तीसरा सवाल यह भी है कि अगर मुस्लिमों और ईसाईयों को भी आरक्षण दिया जाने लगा तो हिन्दू दलितों को दिए जाने वाले आरक्षण में ही उन्हें शामिल किया जायेगा। जिससे हिन्दू जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में कमी होगी और मुस्लिम व ईसाईयों की संख्या बढ़ेगी। इससे दलितों को मिलने वाले मौके और कम हो जायेंगे।
हिन्दू धर्म छोड़कर मुस्लिम या ईसाई बनने पर वर्तमान में आरक्षण नही दिया जाता और आगे भी दिया जाये या नही, इसका फैसला मोदी सरकार द्वारा बनाये गये आयोग की रिपोर्ट व सुप्रीम कोर्ट तय करेगा लेकिन यह तय है कि एक तरफ भाजपा व हिन्दू संगठन धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को आरक्षण नही देने के लिए अड़े है तो वहीं कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल मुस्लिम व ईसाई संगठनों की मांग को समर्थन कर रहे हैं।
उपरोक्त मामले पर आपकी क्या राय है, कमेंट के माध्यम से हमे बताएं।
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